अवतारों के काल और कार्य
१. अवतार उद्देश्य-दुर्गा सप्तशती में लिखा है-
इत्थं यदा यदा बाधा, दानवोत्था भविष्यति।
तदा तदाऽवतीर्याऽहं, करिष्याम्यरिसंक्षयम्॥ (११/५४-५५)
यहां कथा स्वारोचिष मनु के समय से आरम्भ होती है जब सुरथ चक्रवर्त्ती राजा थे। उनका राज्य कोला विध्वंसियों ने समाप्त कर दिया। भारत में कई कोला (भालू) स्थान हैं-पूर्व दक्षिण विन्ध्य में ऋक्ष पर्वत, उसके दक्षिण कोरापुट में कोलाब, महाराष्ट्र में लक्ष्मी स्थान कोलापुर, कर्णाटक में सोने की खान कोलार। दक्षिण पूर्व शक द्वीप (आस्ट्रेलिया) के भालुओं को भी कोला कहते है। जैसे भालू अगले पैरों से हाथ की तरह पकड़ता है, उसी प्रकार सम्पत्ति को भी ताला यातिजोरी में बन्द रखते हैं। इस अर्थ में लक्ष्मी स्थान कोला (कोल्हा) पुर है। कोला खनिज क्षेत्रों के अधिपति थे। राजा सुरथ ही भविष्य में सूर्य पुत्र सावर्णि मनु हुए जो अष्टम मनु थे। सप्तम मनु वैवस्वत भी सूर्य पुत्र ही थे। अतः दोनों का काल एक ही है। ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९/१९) के अनुसार स्वायम्भुव मनु कलि आरम्भ से २६,००० वर्ष पूर्व हुए थे। ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/९/३७) के अनुसार इस अवधि में ७१ युग हुए (प्रायः ३६० वर्ष का युग)। मत्स्य पुराण (२७३/७६-७७) के अनुसार स्वायम्भुव से वैवस्वत मनु तक ४३ तथा उसके बाद २८ युग हुए (कृष्ण द्वैपायन व्यास तक)। उनके बाद अन्य कोई व्यास नहीं हुआ है, अतः अभी तक २८वां युग ही कहते हैं। वैवस्वत मनु के बाद कलि आरम्भ तक सत्य (४८००), त्रेता (३६००), द्वापर (२४००)-कुल १०८०० वर्ष बीते। इसमें ३६० वर्ष के ३० युग होंगे, पर वैवस्वत यम के समय २ युगों तक जल प्रलय रहा (ब्रह्म पुराण, ४३/७१-७७) जब जगन्नाथ मूर्ति बालू में दब गयी थी। जेन्द अवेस्ता में जमशेद (यम) के समय जल प्रलय कहा है जिसका समय ९५६४ ईपू लिखित है। जल प्रलय के २ युगों को हटाने पर वैवस्वत मनु काल (कलियुग आरम्भ तक) २८ युग होते हैं।
सावर्णि मनु भी मुख्य ७ मनु काल में ही विपरीत क्रम से हुए थे-७वें वैवस्वत के साथ ८वें (मेरु)-सावर्णि। स्वायम्भुव मनु काल की समाप्ति (२९१०२ ईपू) से वैवस्वत मनु तक ५ मनु काल को बराबर मान लेने पर प्रति मनु काल ३०४० वर्ष होता है। इसके अनुसार ऐतिहासिक मनु काल हैं-
क्रम मनु सावर्णि मनु काल (ईपू)
१. स्वायम्भुव इन्द्र ३३१०२-२९१०२
२. स्वारोचिष देव २९१०२-२६०६२
३. उत्तम रुद्र २६०६२-२३०२२
४. तामस धर्म २३०२२-१९९८२
५. रैवत ब्रह्म १९९८२-१६९४२
६. चाक्षुष दक्ष १६९४२-१३९०२
७. वैवस्वत मेरु १३९०२-८५७६
दुर्गा अवतार मुख्यतः देश के एकीकरण रूप में हुआ है (२/९-३१)। आज भी सेना, वाहिनी आदि शब्द स्त्रीलिंग हैं। उनके अनुकरण से अंग्रेजी का पुलिस शब्द भी स्त्रीलिंग है। संयुक्त करने वाली प्रेरणा हिमाचल पुत्री दुर्गा थीं। अतः हिमाचल तथा निकट के पंजाब में अभी तक इत्थं (इत्थे) का प्रयोग प्रचलित है। (८/४-६) के अनुसार ये असुर भारत के विरुद्ध लड़ रहे थे-उदायुध (सदा युद्ध के लिए सन्नद्ध-भाड़े के सैनिक?), कम्बु (ईरान के पश्चिमोत्तर कामभोज), कोटिवीर्य (कोटि की शक्ति अरब तक है, अरब देश), धौम्र (दक्षिण अफ्रीका, धूम्र रंग के), कालक (कज्जाकिस्तान), दौर्हृद (जिसके दोनों तरफ ह्रद हों, डार्डेनल, तुर्की के दोनों भाग), मौर्य (मोरक्को के मुर राक्षस), कालकेय (कज्जाकिस्तान के पूर्व तथा उत्तर के भाग, दक्षिण शिविर या साइबेरिया)। स्वयं महिषासुर पाताल देश (उत्तर अमेरिका) का था जहां का जंगली भैंसा (महिष) शक्ति का प्रतीक था (जैसे भारत में सिंह)।
२. विष्णु अवतार-गीता में कहा है कि असुरों के विनाश के लिए विष्णु ने अवतार लिया। इनका समय वायु, ब्रह्माण्ड आदि पुराणों में है-
वायु पुराण (अध्याय ९८)-युगाख्या दश सम्पूर्णा देवापाक्रम्यमूर्धनि।
तावन्तमेव कालं वै ब्रह्मा राज्यमभाषत॥५१॥
यज्ञं प्रवर्तयामास चैत्ये वैवस्वतेऽन्तरे॥७१॥
प्रादुर्भावे तदाऽन्यस्य ब्रह्मैवासीत् पुरोहितः। चतुर्थ्यां तु युगाख्यायामापन्नेष्वसुरेष्वथ॥७२॥
सम्भूतः स समुद्रान्तर्हिरण्यकशिपोर्वधे द्वितीयो नारसिंहोऽभूद्रुदः सुर पुरःसरः॥७३॥
बलिसंस्थेषु लोकेषु त्रेतायां सप्तमे युगे। दैत्यैस्त्रैलोक्य आक्रान्ते तृतीयो वामनोऽभवत्॥७४॥
एतास्तिस्रः स्मृतास्तस्य दिव्याः सम्भूतयः शुभाः। मानुष्याः सप्त यास्तस्य शापजांस्तान्निबोधत॥८७॥
त्रेतायुगे तु दशमे दत्तात्रेयो बभूव ह। नष्टे धर्मे चतुर्थश्च मार्कण्डेय पुरःसरः॥८८॥
पञ्चमः पञ्चदश्यां तु त्रेतायां सम्बभूव ह। मान्धातुश्चक्रवर्तित्वे तस्थौ तथ्य पुरः सरः॥८९॥
एकोनविंशे त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकोऽभवत्। जामदग्न्यास्तथा षष्ठो विश्वामित्र पुरः सरः॥९०॥
चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा। सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥९१॥
वैवस्वत मनु के पूर्व १० युगों तक असुरों का प्रभुत्व था (१० x ३६० =३६०० वर्ष)। असुरों के प्रभुत्व काल में विष्णु के ४ अवतार हुए-वराह, नरसिंह, वामन (विष्णु), कूर्म-
चतुर्थ युग (१६४२२-१६०६२ ईपू)-वराह अवतार ने समुद्र पार कर हिरण्याक्ष का वध किया। गरुड पुराण (१/८७/३०) के अनुसार तेजस्वी नामक इन्द्र के शत्रु हिरण्याक्ष का वराह रूपी विष्णु द्वारा वध हुआ। ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२०) के अनुसार यह रसातल (दक्षिण अमेरिका) का राजा था। जेन्द अवेस्ता के अनुसार आमेजन नदी के किनारे हिरण्याक्ष की राजधानी थी। वे लोग विष्णु की वराह रूप में पूजा करते थे। अतः विष्णु १८ साथियों के साथ वराह का मुखौटा पहन कर मित्र रूप में उसकी राजधानी में गये। कुछ दिनों तक अतिथि रूप में स्वागत होने के बाद अचानक हिरण्याक्ष की हत्या कर वे लोग वहां से निकल गये और बाद में सेना सहित आक्रमण किया। जल और स्थल उभय में शक्ति दिखाने के कारण इस अवतार को वराह नाम दिय़ा है। यह भारत के पूर्व तट के थे। हिरण्याक्ष ने वेदों को गायब कर दिया था (वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, १७/५० के अनुसार श्वेताश्वतर यजुर्वेद)। उसके बाद शौनक के चरण व्यूह के अनुसार पुष्कर द्वीप (दक्षिण अमेरिका) के अतिरिक्त विश्व के अन्य सभी द्वीपों में कृष्ण यजुर्वेद की ८६ शाखाओं का विस्तार था।
पञ्चम-षष्ठ युग (१६०६२-१५३४२ ईपू)-नरसिंह अवतार ने हिरण्यकशिपु का वध किया। यह ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार तलातल लोक (अफ्रीका) का राजा था। पश्चिम अफ्रीका की सैनिक स्त्रियों को भी आमेजन कहते थे। इसका हिरण्याक्ष से इतना ही सम्बन्ध था कि दोनों देव शत्रु थे। नरसिंह इन्द्र के सेनापति थे तथा दक्षिण पश्चिम ओड़िशा में इनका स्थान था (नरसिंहनाथ, सिंहाचलम्)।
सप्तम युग (१५३४२-१४९८२ ईपू)-बलि के समय वामन अवतार। इनका मूल नाम भी विष्णु था। बलि से इन्द्र के ३ लोकों का राज्य वापस ले लिया। यह ३ लोक भारत, चीन, रूस थे। बलि ने युद्ध से बचने के लिए यह स्वीकार किया और वापस पाताल-या सुतल लोक लौट गया (उतर अमेरिका का पूर्व-पश्चिम भाग)। कई असुर सहमत नहीं थे और युद्ध चलता रहा। सन्धि रूप में कूर्म अवतार के समय संयुक्त समुद्र मन्थन हुआ जिसके बाद पुनः बंटवारे के लिए युद्ध हुआ। समुद्र मन्थन के लिए भारत में जो असुर आये उनकी उपाधि आज भी आसुरी भाषा में ही है-ओराम (ग्रीक में औरम = स्वर्ण), हेम्ब्रम (ग्रीक में पारद), खालको (ताम्र अयस्त्क), टोप्पो (टोपाज), किस्कू (धमन भट्टी, कियोस्क)। बाद में सगर द्वारा भगाये जाने पर यवन पश्चिम तुर्की तथा वहां से ग्रीस गये जिससे उसका नाम इयोनिया या यूनान हुआ (हेरोडोटस)। समुद्र मन्थन में समन्वय के लिए वासुकि नाग आये थे जो रसातल के थे (ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२०) उसके बाद कार्त्तिकेय ने क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) का विजय किया और कोणार्क में विजय स्तम्भ स्थापित किया (स्कन्द पुराण, माहेश्वर, कुमारिका खण्ड, ३५/३)। बलि ७ चिरजीवियों में प्रथम हैं-उनके समय में ही वामन, कूर्म, कार्त्तिकेय हुए।
३. वैवस्वत मनु के बाद के अवतार-
(१) मत्स्य-वैवस्वत यम (संयमनी, सना, अम्मान) के बाद प्रायः १०,००० ई.पू (आधुनिक अनुमान) में जल प्रलय आरम्भ हुआ। इस काल में मत्स्य अवतार हुआ। जेन्द अवेस्ता तथा पुराने पारसी लेखों के अनुसार ९५६४ ई.पू. में जल प्रलय हुआ था। विष्णु धर्मोत्तर पुराण (८२/७-८, ८१/२३-२४) के अनुसार यह ९५३३ ई.पू. में हुआ था। मत्स्य तथा राम जन्म (४४३३ ईपू) दोनों वर्षों में प्रभव वर्ष था। दक्षिण भारत के पितामह सिद्धान्त के अनुसार सौर वर्ष को ही बार्हस्पत्य वर्ष मानते हैं। बाद में उत्तर भारत के सूर्य सिद्धान्त के अनुसार गुरु द्वारा १ राशि में मध्यम गति से चलन ३६१ दिन ४ घण्टा को बार्हस्पत्य वर्ष कहते हैं। इस पद्धति में ८५ सौर वर्ष में ८६ गुरु वर्ष होते हैं। अतः दोनों का सम्मिलित चक्र ५१०० वर्ष का होगा। जल प्रलय का प्रभाव भारत पर कम हुआ, क्योंकि यह उत्तर ध्रुव क्षेत्र में हिम चक्र से हिमालय द्वारा सुरक्षित है। किन्तु अन्य भागों में बहुत संघर्ष हुआ। असुरों द्वारा हिंसा को रोकने और शान्ति स्थापित करने के लिए इसकी आवश्यकता हुई।
(२) परशुराम अवतार-इनका जन्म १९वें त्रेता में हुआ, अर्थात् २८ युग समाप्ति (३१०२ ई.पू.) के १० युग पूर्व से = ६७०२-६३४२ ई.पू. तक था। इनके देहान्त के बाद ६१७७ ई.पू. में परशुराम या कलम्ब (केरल का कोल्लम) सम्वत् आरम्भ हुआ। मेगास्थनीज ने इनको (विष्णु अवतार) को बाक्कस (६७७७ ई.पू. में भारत पर आक्रमण) के १५ पीढ़ी बाद कहा है। ६०० वर्ष का अन्तर प्रायः १५ पीढ़ी का होगा। हैहय राजाओं ने बाक्कस की सहायता की थी, अतः पहले उनका वध किया। परशुराम ने २१ बार प्रजातन्त्र स्थापित किया जिसे ग्रीक लेखकों ने १२० वर्ष का प्रथम प्रजातन्त्र काल कहा है। इनको कई जातियों ने सहायता की जिनमें खस (असम की खासी), उड्र (उत्तर ओडिशा मे अघोरनाथ – घोघरनाथ केन्द्र से), खुरद (तुर्की-इराक के कुर्द्द) आदि थे (ब्रह्मवैवर्त पुराण, ३/२४/५९-६४, वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, ५४/१८-२३, ५५/२-३, गणेश पुराण, १/७९/१४-१८)। अन्त में मालाबार के पश्चिम तट पर समुद्र के भीतर २००, फिर ४०० योजन (ब्रह्माण्ड पुराण, २/३/५८/१७, ३२) या ३० योजन (नारद पुराण, २/७/४/४) गोकर्ण के निकट शूर्पारक (सोपारा) नगर बसाया। समुद्र के भीतर जल को बाहर करने के लिये या जहाज रुकने के स्थान के लिये सूप (शूर्प) आकार की सीमा बनाते हैं। अतः शूर्पारक नाम हुआ। यहां २ प्रकार के योजन हैं। रामेश्वरम के निकट २२ किमी के रामसेतु को १०० योजन कहा है। अतः २०० योजन = प्रायः ४४ किमी। मालाबार तट पर समुद्र के भीतर प्रायः ३० किमी. लम्बी दीवार मिली है, जो ४४ कि.मी. की सीमा का भाग है। इसे ८००० वर्ष पुराना अनुमान किया गया है। इनके १२० वर्ष के प्रजातन्त्र का हिसाब है-आरम्भ में ८ x ४ वर्ष युद्ध, ६ x ४ वर्ष तप, २१ बार क्षत्रिय नाश (प्रजातन्त्र) में प्रत्येक में २-२ वर्ष = ७८ वर्ष लगे। बाकी शान्तिपूर्ण प्रजातन्त्र तथा शूर्पारक निर्माण की अवधि हैं (ब्रह्माण्ड पुराण, २/३/४६)। कामधेनु के अंगों से उत्पन्न जातियों के उल्लेख से पता चलता है कि यह उस समय विश्व का उत्पादक क्षेत्र था जिसके साधनों पर कार्तवीर्य अर्जुन या बाद में विश्वामित्र बल पूर्वक अधिकार करना चाहते थे। यज्ञ द्वारा आवश्यक उत्पादन को ही कामधेनु (कामधुक्) कहा गया है-सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविध्यष्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्॥ (गीता, ३/१०)
धेनूमामस्मि कामधुक् (गीता, १०/२८)
(३) राम अवतार-राम २४वें त्रेता में थे, अर्थात् ३१०२ से १४४० वर्ष पूर्व ४५४२ ई.पू. में पूरा हुआ। दोनों प्रकार से प्रभव वर्ष ४४३३ ई.पू. में था। वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड सर्ग १८ में राम जन्म समय की ग्रह स्थिति दी है-
ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट् समत्ययुः। ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ॥८॥
नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु। ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह॥९॥
प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम्। कौशल्याजनयद् रामं सर्वलक्षण संयुतम्॥१०॥
= (पुत्र कामेष्टि= अश्वमेध) यज्ञ के ६ ऋतु बाद १२वें मास में चैत्र नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र (जिसका देवता अदिति है) में जन्म हुआ जब ५ ग्रह स्व (स्थान) या उच्च के थे। जब कर्क लग्न, बृहस्पति और चन्द्र का एक साथ उदय हो रहा था, सभी लोकों से वन्दित जगन्नाथ का भी उदय हुआ तथा कौशल्या ने सभी लक्षणों से युक्त राम को जन्म दिया। अगले दिन पुष्य नक्षत्र, मीन लग्न में भरत का तथा उसी दिन अश्लेषा नक्षत्र में लक्ष्मण-शत्रुघ्न का जन्म हुआ जब सूर्य उच्च (१० अंश) पर थे। अतः राम जन्म के समय सूर्य ९० अंश पर, चन्द्र, गुरु, लग्न ९०अंश०’१”, तथा चैत्र नवमी (सौर मास की) थी। गुरु और सूर्य प्रायः उच्च पर थे (इनका उच्च १०अंश, ९५अंश हैं), अन्य ५ ग्रह पूर्ण उच्च के थे-मंगल २९८ अंश, शुक्र ३५७ अंश, शनि २०० अंश। चन्द्र का उच्च ५८ अंश है पर उसका स्थान ९०अंश दिया है जो उसका अपना स्थान है। है। बुध का उच्च १६५ अंश है पर यह सूर्य से २८ अंश से अधिक दूर नहीं हो सकता। अतः बुध राहु-केतु की गणना करनी होगी। राम की ३५ पीढ़ी बाद बृहद्बल महाभारत में मारा गया। अतः राम का काल महाभारत (३१३८ ई.पू.) से प्रायः १३०० वर्ष पूर्व होगा। ३५०१-४७०० ई.पू. के सभी वर्षों की गणना करने पर केवल ४४३३ ई.पू. में ही अयोध्या की सूर्योदय कालीन तिथि नवमी थी (चैत्र शुक्ल) जो अगले सूर्योदय तक थी। इस गणना से राम का जन्म ११-२-४४३३ ई.पू., रविवार, १०-४७-४८ स्थानीय समय पर हुआ। सूर्योदय ५-३५-४८, सूर्यास्त १८-२८-४८ था। अयनांश १९-५७-५४, प्रभव वर्ष था। अन्य ग्रह बुध २१ अंश, राहु १२अंश ४’४६”। श्री नरसिंह राव की पुस्तक- Date of Sri Rama, १९९०, १०२ माउण्ट रोड, मद्रास के अनुसार अन्य ८८ तिथियां दी हैं।
(४) कृष्ण अवतार वसुदेव और देवकी के पुत्र के रूप में भगवान् कृष्ण का जन्म भाद्र शुक्ल अष्टमी को मथुरा में कंस के कारागार में हुआ। यह पूर्णिमान्त मास की तिथि है, अमान्त मास में यह श्रावण कृष्ण अष्टमी है। १२५ वर्ष की आयु पूर्ण होने के बाद जब उन्होंने इस लोक का त्याग किया तो कलियुग का आरम्भ १७-२-३१०२ ई.पू. को हुआ। इसके अनुसार भगवान् कृष्ण का जन्म १९-७-३२२८ ई.पू. मथुरा मध्यरात्रि को हुआ। रोहिणी नक्षत्र तृतीय चरण में जन्म होने से महर्षि गर्ग ने उनका राशिनाम विष्वक्सेन रखा। जन्म समय की ग्रह स्थिति थी-मथुरा (२७°२५’ उत्तर, ७७°४१’ पूर्व) में मध्यरात्रि, सूर्य १३९अंश४८’, चन्द्र ४७अंश४२’, मंगल ९१अंश६’, बुध १५२अंश४८’, गुरु १४८अंश५४’, शुक्र १०२अंश५४’, शनि २२४अंश४२’, राहु १०६अंश२४’, लग्न ५०अंश।
(५) बुद्ध अवतार-बौद्ध इतिहासकारों ने बुद्ध की महानता दिखाने के लिये कई बुद्धों को एक साथ मिला दिया है। सबसे प्रमुख बुद्ध इक्ष्वाकु वंश के कलि में २४में राजा शुद्धोदन के पुत्र थे जिनका जन्म का नाम सिद्धार्थ था। ज्ञान प्राप्ति के बाद ये बुद्ध हुये। पूरी जीवनी में यह कहीं नहीं लिखा है कि वे बीच में गौतम कब हुये। वस्तुतः गौतम बुद्ध उनके प्रायः १३०० वर्ष बाद हुये। बौद्ध ग्रन्थों (स्तूप = थूप वंश) में २८ बुद्धों की सूची दी है। बुद्धवंश में २८ बुद्धों की सूची के बाद सिद्धार्थ बुद्ध की प्रशंसा की है कि उन्होंने अपने उपदेश लिखित रूप में रखे अतः वे सुरक्षित रहे-
अतीत बुद्धानं जिनानं देसितं। निकीलितं बुद्ध परम्परागतं। पुब्बे निवासा निगताय बुद्धिया। पकासमी लोकहितं सदेवके॥
अन्य ४ बुद्ध थे-विपश्यि, शिखि, विश्वभू, तिष्य-जिनकी शिक्षा लिखित उपदेश के अभाव में नष्ट हो गयी। अश्वघोष के बुद्ध चरित (२३/४३,४४) में भी कई बुद्धों का उल्लेख है। यह पुस्तक पिछले १०० वर्षों से अधिकांश विश्वविद्यालयों की पाठ्य पुस्तक है, तथापि अंग्रेजी आज्ञा-पालन के कारण केवल सिद्धार्थ को बुद्ध मानते हैं-
अन्ये ये चापि सम्बुद्धा लोकं विद्योत्यधीत्विषा। दीप इव गतस्नेह निर्वाणं समुपागताः॥
भविष्यन्ति च ये बुद्धा भविष्यन्ति तपस्विनः। ज्वलित्वाऽन्तं प्रयास्यन्ति दग्धेन्धन कृशानुवत्॥
चीनी यात्री फा-हियान ने ४ बुद्धों के जन्म स्थान का वर्णन किया है-क्रकुच्छन्द बुद्ध श्रावस्ती से १०० कि.मी दक्षिण-पश्चिम, कनकमुनि श्रावस्ती से ८ कि.मी. उत्तर तथा कश्यप बुद्ध (द्वितीय कश्यप) श्रावस्ती से १५ कि.मी. पश्चिम टण्डवा ग्राम में हुये थे। इनके पीठ हैं-चम्पा (भागलपुर, बिहार), साकेत (अयोध्या), सारनाथ (वाराणसी के निकट)। सारनाथ के पास निगलिहवा शिलालेख में अशोक ने लिखा है कि अपने शासन के १४वें वर्ष में उसने कोणगमन (कनकमुनि) के स्तूप (सारनाथ में) को दुगुना कर दिया तथा पुनः २० वें वर्ष में वहां गया।
(क) सिद्धार्थ बुद्ध-सिद्धार्थ के जन्म की सभी मुख्य घटनायें वैशाख पूर्णिमा (बुद्ध पूर्णिमा) को हुयीं-
जन्म ३१-३-१८८६ ईसा पूर्व, शुक्रवार, वैशाख शुक्ल १५ (पूर्णिमा), ५९-२४ घटी तक। कपिलवस्तु के लिये प्रस्थान २९-५-१८५९ ईसा पूर्व, रविवार, आषाढ़ शुक्ल १५। बुद्धत्व प्राप्ति ३-४-१८५१ ईसा पूर्व, वैशाख पूर्णिमा सूर्योदय से ११ घटी पूर्व तक। शुद्धोदन का देहान्त २५-६-१८४८ ईसा पूर्व, शनिवार, श्रावण पूर्णिमा। बुद्ध निर्वाण २७-३-१८०७ ईसा पूर्व, मंगलवार, वैशाख पूर्णिमा, सूर्योदय से कुछ पूर्व। इनकी जन्म कुण्डली-लग्न ३-१अंश-२’, सूर्य ०-४अंश-५४’, चन्द्र ६-२८अंश-६’, मंगल ११-२८अंश-२४’, बुध ११-१०अंश-३०’, गुरु ५-८अंश-१२’, शुक्र ०-२३अंश-२४’, शनि १-१६अंश-४८’, राहु २-१५अंश-३८’, केतु ८-१५अंश-३८’। ये सभी तिथि-नक्षत्र-वार बुद्ध की जीवनी से हैं।
(ख) गौतम बुद्ध-सामान्यतः ४८३ ईसा पूर्व में जिस बुद्ध का निर्वाण कहा जाता है, वह यही बुद्ध हैं जिनका काल कलि की २७ वीं शताब्दी (५०० ईसा पूर्व से आरम्भ) है। इन्होंने गौतम के न्याय दर्शन के तर्क द्वारा अन्य मतों का खण्डन किया तथा वैदिक मार्ग के उन्मूलन के लिये तीर्थों में यन्त्र स्थापित किये। गौतम मार्ग के कारण इनको गौतम बुद्ध कहा गया, जो इनका मूल नाम भी हो सकता है। स्वयं सिद्धार्थ बुद्ध ने कहा था कि उनका मार्ग १००० वर्षों तक चलेगा पर मठों में स्त्रियों के प्रवेश के बाद कहा कि यह ५०० वर्षों तक ही चलेगा। आज की धार्मिक संस्थाओं में भ्रष्टाचार उनकी दृष्टि में था। गौतम बुद्ध के काल में मुख्य धारा से द्वेष के कारण तथा सिद्धार्थ द्वारा दृष्ट दुराचारों के कारण इसका प्रचार शंकराचार्य (५०९-४७६ ईसा पूर्व) में कम हो गया। चीन में भी इसी काल में कन्फ्युशस तथा लाओत्से ने सुधार किये।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २१-
सप्तविंशच्छते भूमौ कलौ सम्वत्सरे गते॥२१॥ शाक्यसिंह गुरुर्गेयो बहु माया प्रवर्तकः॥३॥
स नाम्ना गौतमाचार्यो दैत्य पक्षविवर्धकः। सर्वतीर्थेषु तेनैव यन्त्राणि स्थापितानि वै॥ ३१॥
(ग) विष्णु अवतार बुद्ध- यह २००० कलि के कुछ बाद मगध (कीकट) में अजिन ब्राह्मण के पुत्र रूप में उत्पन्न हुये। दैत्यों का विनाश इन्होंने ही किया, सिद्धार्थ तथा गौतम मुख्यतः वेद मार्ग के विनाश में तत्पर थे। इसका मुख्य कारण था प्रायः ८०० ईसा पूर्व में असीरिया में असुर बनिपाल के नेतृत्व में असुर शक्ति का उदय। उसके प्रतिकार के लिये आबू पर्वत पर यज्ञ कर ४ शक्तिशाली राजाओं का संघ बना। ये राजा देश-रक्षा में अग्रणी या अग्री होने के कारण अग्निवंशी कहे गये-प्रमर (परमार-सामवेदी ब्राह्मण), प्रतिहार (परिहार), चाहमान (चौहान), चालुक्य (शुक्ल यजुर्वेदी, सोलंकी, सालुंखे)। इस संघ के नेता होने के कारण ब्राह्मण इन्द्राणीगुप्त को सम्मान के लिये शूद्रक (४ वर्णों या राजाओं का समन्वय) कहा गया तथा इस समय आरम्भ मालव-गण-सम्वत् (७५६ ईसा पूर्व) को कृत-सम्वत् कहा गया। ६१२ ईसा पूर्व में इस संघ के चाहमान ने असीरिया की राजधानी निनेवे को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया, जिसका उल्लेख बाइबिल में कई स्थानों पर है। http://bible.tmtm.com/wiki/NINEVEH_%28Jewish_Encyclopedia%29
http://www.biblewiki.be/wiki/Medes
चाहमान को मध्यदेश (मेडेस) का राजा कहा गया है। विन्ध्य तथा हिमालय के बीच का भाग अभी भी मधेस कहा जाता है-नेपाल में मैदानी भाग के लोगों को मधेस कहते हैं। रघुवंश (२/४२) में भी अयोध्या के राजा दिलीप को मध्यम-लोक-पाल कहा गया है। इस दिन चाहमान या शाकम्भरी शक आरम्भ हुआ, जिसका प्रयोग वराहमिहिर (बृहत् संहिता १३/३) तथा ब्रह्मगुप्त ने किया है। कलियुग के ८वें पाण्डुवंशी राजा निचक्षु के काल में जब सरस्वती नदी सूख गयी तथा हस्तिनापुर डूब गया, तो शाकम्भरी अवतार हुआ था (दुर्गा सप्तशती, अध्याय ११) जिसमें चाहमान वंश की मुख्य भूमिका थी।
व्यतीते द्विसहस्राब्दे किञ्चिज्जाते भृगूत्तम॥१९॥ अग्निद्वारेण प्रययौ स शुक्लोऽर्बुद पर्वते।
जित्वा बौद्धान् द्विजैः सार्धं त्रिभिरन्यैश्च बन्धुभिः॥२०॥(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, ३/३)
बौद्धरूपः स्वयं जातः कलौ प्राप्ते भयानके। अजिनस्य द्विजस्यैव सुतो भूत्वा जनार्दनः॥२७॥
वेद धर्म परान् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।॥२८॥
षोडषे च कलौ प्राप्ते बभूवुर्यज्ञवर्जिताः॥२९॥ (भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, ४/१२)
ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्। बुद्धो नाम्नाजिनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥ (भागवत पुराण १/३/२४)
(६) कल्कि अवतार- यह भविष्य में होने वाला है। कई लोग पुराणों की रचना तभी मानते हैं जब १२०० ई. में भारत के सभी प्रमुख पुस्तकालय इस्लामी आक्रमण में नष्ट हो गये। इन लोगों के मत से अभी सभी पुराण लिखे जाने बाकी हैं क्योंकि उनमें वर्णित कल्कि अवतार नहीं हुआ है। कई मुस्लिम लेखकों ने पैगम्बर मोहम्मद को कल्कि अवतार माना है और उसके समर्थन में भविष्य पुराण तथा वेदों के उद्धरण खोज कर उसका मनमाना अर्थ निकालते हैं। पर भागवत पुराण में इसका विपरीत लिखा है कि लिंग-छेदी दस्युओं (खतना करने वाले मुस्लिम) को मारेंगे।
भागवत पुराण, स्कन्ध १२, अध्याय २-
इत्थं कलौ गतप्राये जनेषु खरधर्मिषु। धर्मत्राणाय सत्त्वेन भगवानवतरिष्यति॥१६॥
चराचर गुरोर्विष्णोरीश्वरस्याखिलात्मनः। धर्मत्राणाय साधूनां जन्म कर्मापनुत्तये॥१७॥
शम्भल ग्राम मुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः। भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति॥१८॥
अश्वमाशुगमारुह्य देवदत्तं जगत्पतिः। असिना साधु दमनमष्टैश्वर्य गुणान्वितः॥१९॥
विचरन्नाशुना क्षौण्यां हयेनाप्रतिमद्युतिः। नृपलिङ्गच्छदो दस्यून्कोटिशो निहनिष्यति॥२०॥
यदावतीर्णो भगवान्कल्किर्धर्मपतिर्हरिः। कृतं भविष्यति तदा प्रजा सूतिश्च सात्त्विकी॥२३॥
यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती। एकराशौ समेष्यन्ति भविष्यति तदा कृतम्॥२४॥
इस के अनुसार कलि के अन्त में जब धर्म का नाश होने लगेगा तब सम्भल ग्राम में शम्भल ग्राम के विष्णुयश ब्राह्मण के पुत्र रूप में कल्कि रूप में विष्णु जन्म लेंगे। वे असाधु दैत्यों के दमन के लिये तेज घोड़े पर पूरे विश्व के करोड़ों दस्युओं का वध करेंगे। उसके बाद जब एक राशि में पुष्य नक्षत्र में सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति स्थित होंगे तब सत्ययुग आरम्भ होगा। यह स्थिति प्रायः हर १२ वर्ष बाद आती है। आगामी १५ जुलाई २०२६ को गुरु, चन्द्र पुष्य में होंगे, पर उसके ६ दिन बाद सूर्य इस नक्षत्र में आयेगा। सूर्य सिद्धान्त अयनांश लेने से १९ जुलाई को सूर्य पुष्य में होगा। थोड़ा कम अयनांश लेने से १५-७-२०२५ को तीनों ग्रह पुष्य में होंगे। कुरान के अनुसार २०२२ ई. में १४०० वर्ष बाद इस्लाम की समाप्ति होगी।
सम्भल ग्राम के बारे में कई मत हैं। ओड़िशा का सम्बलपुर इन्द्र की सेना का स्थान था जहां उनकी वज्र शक्ति छिन्नमस्ता की समलेश्वरी रूप में प्राचीन काल से पूजा हो रही है। वहां इन्द्र-शिव का मन्दिर बुढ़ाराजा (स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा) प्राचिन काल से है। इसके निकट महेन्द्र पर्वत भी है जहां परशुराम का निवास है और वे इनको अस्त्र शिक्षा देंगे। ओड़िशा में पारम्परिक कल्कि मठ भी है। कल्कि पुराण अध्याय २ के अनुसार वैशाख शुक्ल द्वादशी के दिन कल्कि अवतार होगा। उनकी माता का नाम सुमति होगा।
कल्कि पुराण, अध्याय २-शम्भले विष्णुयससो गृहे प्रादुर्भवाम्यहम्। सुमत्या मातरि विभो पत्नीयां त्वन्निदेशतः॥४॥
चतुर्भिर्भ्रातृभिर्देव करिष्यामि कलिक्षयम्॥५॥ इयं मम प्रिया लक्ष्मीः सिंहले सम्भविष्यति।
बृहद्रथस्य भूपस्य कौमुद्या कमलेक्षणा॥ भार्याया मम भार्येषा पद्मा नाम्नी जनिष्यति॥६॥
द्वादश्यां शुक्ल पक्षस्य माधवे मासि माधवम्। जातं ददृशतुः पुत्रं पितरौ हृष्टमानसौ॥१५॥
अध्याय ३-ततो वस्तुं गुरुकुले यान्तं कल्किं निरीक्ष्य सः। महेन्द्राद्रि स्थितो रामः समानीयाश्रमं प्रभुः॥१॥