‘अथ त्रीणि पुराणि ब्रह्मविष्णुशिवशरीराणि यस्मिन् सः त्रिपुरः पराशिव:, तस्य पुराणि सुन्दरी शक्तिः।”
ऋग्वेदीय त्रिपुरोपनिषद् के अनुसार ‘त्रिपुरा’ पद की सार्थकता निम्न तथ्यों के कारण है-
१. भगवती त्रिपुरा तीन पुरों की अधीश्वरी हैं।
२. तीन पन्थ वाली हैं।
३. समस्त (त्रिलोक) एवं प्राणियों की जननी ( जन्मदात्री ) हैं।
४. वे ‘अ-क-था’ है।
५. वे अक्षरा हैं।
६. वे अजरा है।
२७ वे पुराणी हैं।
८. वे देवों का अधिष्ठान है।
तिस्रः पुरस्त्रिप्रथा विश्वचर्षणी अत्राकथा अक्षरा सन्निविष्टा । अधिष्ठायैनामजरा पुराणी महत्तरा महिमा देवतानाम् ।।
‘त्रिपुराविद्या के ज्ञानाधिगम से साधक सिद्ध-संघ का अधिपति बन जाता है- अथ वक्ष्ये परां विद्यां त्रिपुरामतिगोषिताम्।
यं ज्ञात्वा सिद्धिसन्यानामधिपो जायते नरः। (शारदातिलक)
यह विद्या वाग्भवबीज, कामबीज एवं कामराजबीज के भेद से बीजयात्मिका है— वाभवं प्रथमं बीजं काम बीजं द्वितीयकम्। तृतीयं कामराजाख्यं त्रिभिरितीरिता (शारदातिलक)
भगवती त्रिपुरा की पञ्चदशी विद्या का परिचय इस प्रकार है- पचकूटात्मिका विद्या वेद्या त्रिपुरसुन्दरी
ऋषिः स्याद्दक्षिणामूर्तिश्छन्दः पंक्तिः समीरितः ।।
भगवती त्रिपुरा की उपासना वाममार्ग एवं दक्षिणमार्ग दोनों में प्रचलित है। आचार्य विद्यानन्द ( अर्थ में) कहते हैं कि इनकी प्रधान साधना दक्षिणमार्गानुष्ठिता है। आचार्य दीपकनाथ (त्रिपुरसुन्दरीदण्डक में ) कहते हैं कि उनकी प्रधान साधना का मार्ग वाम मार्ग है— ‘सुस्फुटं वाममार्गस्य सर्वोत्तमत्वं समुपदिश्यते। इनमें वाममार्ग तो कौलमार्ग है और दक्षिणमार्ग समयमार्ग है। भगवती त्रिपुरा की उपासना कौलमार्ग, मित्रमार्ग एवं समयमार्ग तीनों में प्रचलित है।
दस महाविद्याओं में भगवती षोडशी’ (महात्रिपुरसुन्दरी) तृतीया महाविद्या हैं। दस महाविद्यायें निम्नाकित हैं-
काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी। भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।। बगला सिद्धविद्या च मातङ्गी कमलात्मिका । एता दश महाविद्या सिद्धविद्याः प्रकीर्तिताः ।।
वामके वरतन्त्र में इन्हीं भगवती त्रिपुरा देवी को ‘त्रिविधा’ कहा गया है, जो कि ज्ञान- शक्ति क्रियाशक्ति एवं इच्छाशक्ति के रूपों में तथा त्रिदेवों के रूप में विभाजित है- त्रिपुरा त्रिविधा देवी ब्रह्मविष्ण्वीशरूपिणी। ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिरिच्छाशक्त्यात्मिका प्रिये ।।
श्रीविद्या का महत्त्व — सैकड़ों यज्ञ करने से जो पुण्यार्जन होता है, वह एक क्षण
में ही ‘श्रीचक्र’ के दर्शनमात्र से प्राप्त हो जाता है- सम्यक् शतं क्रतून् कृत्वा यत्फलं समवाप्नुयात्। तत्फलं समवाप्नोति कृत्वा श्रीचक्रदर्शनम् ।।
अन्त में मैं इस पुस्तक के वैचारिक केन्द्र में स्थित श्रीविद्या को अधिष्ठात्री परदेवता के श्रपादपद्मों में नमन करते हुये ऋषि दुर्वासा के शब्दों में निवेदन करना चाहता हूँ कि
आताम्राकसहस्रदीप्तिपरमा सौन्दर्यसारैरलं लोकातीतमहोदयैरुपयुता सर्वोपमागोचरैः । नानानविभूषणैरगणितैर्जाज्वल्यमानाभितः श्रीमातस्त्रिपुरारि सुन्दरि कुरु स्वान्ते निवास मम ।।
भगवती महात्रिपुरसुन्दरी के विभिन्न स्वरूपो में श्रीचक्र को निर्गुण स्वरूप में भी पूजित है।
वैसे तो भगवती के तो अनन्त एवं अचिन्त्य रूप हैं, तथापि उन्हें वर्गीकृत करके प्रस्तुत किया जाय तो उनके निम्न तीन रूप मुख्य दृष्टिगोचर होते हैं-
१. निर्गुण रूप – भगवती का एक चक्रात्मक रूप भी है, जो कि श्रीचक्र के रूप में प्रतिष्ठित है। श्रीचक्र का महत्त्व इतना है कि हजारों एवं करोड़ों तीर्थस्नान करने पर भी जो फल प्राप्त नहीं होता, उतना मात्र ‘श्रीचक्र’ का पादोदक लेने से ही प्राप्त हो जाता है। कहा भी गया है-
‘तीर्थस्नानसहस्रकोटिफलदं श्रीचक्रपादोदकम्।’
श्रीविद्या साधना
पिण्ड में जो मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धाख्य, आज्ञा आदि चक्र हैं; वे सभी श्रीचक्र में अन्तर्भूत हैं। परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी वाक् भी श्रीचक्र एवं श्रीविद्या में अन्तर्भूत हैं।
भूपुर, वृत्त एवं त्रिकोण गुणत्रय, कालत्रय, अवस्थात्रय एवं लोकत्रय के बोधक माने जाते हैं। बिन्दु तुरीय एवं तुरीयातीत के बोधक हैं। चूँकि पिण्ड एवं ब्रह्माण्ड में भी एकता है; अतः ‘श्रीचक्र’ का ब्रह्माण्ड एवं पिण्ड दोनों से ऐक्य है। प्रणवस्वरूप ‘शब्दब्रह्म’ भी श्रीचक्र का ही प्रतीक है। इस दृष्टि से प्रणव के अ, उ एवं म मन्त्राक्षर अवस्था, वाक् के ४-४ रूपों एवं श्रीचक्र के सृष्टि, स्थिति, संहार एवं अनाख्या– ४ रूपों से एका- कार है और सभी का श्रीचक्र के इन्हीं चार स्वरूपों में अन्तर्भाव है।
श्रीचक्र एवं त्रिपुरा के त्रिपुरात्व में अन्तः सम्बन्ध – बिन्दु से आरम्भ करके अष्टदल = सृष्टिचक्र तक, ‘चतुर्दशार’ से आरम्भ करके ‘अन्तर्दशार’ तक और अष्टार से आरम्भ करके बिन्दुपर्यन्त संहारचक्र है। चक्र के ३ भाग हैं और त्रिपुरा भी त्रयात्मिका हैं।
श्रीचक्र का अर्चन क्रम- श्रीचक्र के अर्चनक्रम में दो सम्प्रदायों की पृथक् पृथक् दृष्टियाँ हैं— दक्षिणामूर्ति और हयग्रीव हयग्रीव आनन्दभैरव सम्प्रदाय में स्थिति-क्रम में बिन्दु – त्रिकोण-कामेश्वरी आदि नित्या, गुरुपंक्ति का पूजन एवं फिर भूपुर से आरम्भ करके क्रमशः अष्टार- त्रिकोण आदि का पूजन होता है। अन्य पूजन दक्षिणामूर्ति सम्प्रदाय के अनुसार ही है।
अर्चनक्रम
दक्षिणामूर्ति सम्प्रदाय के अनुसार
‘हयग्रीव’ आनन्दभैरव सम्प्रदाय के अनुसार
१. बिन्दु से आरम्भ करके भूपुरपर्यन्त
अर्चनाक्रम- सृष्टिक्रम में। २. भूपुर से आरम्भ करके अष्टारपर्यन्त,
पुनः बिन्दु से चतुर्दशार तक — स्थितिक्रम में ।
३ . भूपुर से आरम्भ करके बिन्दुपर्यन्त
अर्चन – संहारक्रम में ।
पिण्डस्थ चक्र एवं श्रीचक्र में ऐकात्म्य
चन्द्रबिम्ब श्रीचक्र है— ‘चन्द्रबिम्बं श्रीचक्रम्’ (लक्ष्मीधरा )। कला ही ‘सादाख्या’ है। नादबिन्दु कलात्मक और श्रीचक्र त्रिखण्डात्मक है। सादाख्या कला श्रीविद्या का अपर पर्याय है तथा नादबिन्दु कलातीत है।
भावनोपनिषद् में कहा गया है कि ‘नवचक्ररूपं श्रीचक्रम्’ । श्रीचक्र को ‘शिवयोर्वपुः ‘ (शिव एवं शक्ति का शरीर ) भी कहा गया है; क्योंकि शिवचक्र एवं शक्तिचक्र के संयोग से ही श्रीचक्र का निर्माण हुआ है। पिण्डस्थ चक्र एवं श्रीचक्र में सामरस्य है—