. सीताजी के पूर्वजन्म का वृत्तान्त . Sitaji's previous birth

. सीताजी के पूर्वजन्म का वृत्तान्त .Sitaji’s previous birth

. सीताजी के पूर्वजन्म का वृत्तान्त

      जनकपुर जाते समय श्रीराम ने विश्वामित्र से पूछा–'महाराज ! आप जिसके स्वयंवर में जा रहे हैं वह सीता कौन है ?'
      विश्वामित्र ने कहा–'हे श्रीराम! पूर्वकाल में एक पद्माक्ष नामक राजा था, उसने तपश्चर्या से लक्ष्मीजी को प्रसन्न करके यह वरदान माँगा–'आप मेरे यहाँ पुत्री रूप से प्रकट हों।'
      लक्ष्मीजी ने कहा–'मैं तो श्रीविष्णु के अधीन हूँ, वह जहाँ आज्ञा देते हैं वहीं प्रकट होती हूँ।'
      यह सुनकर उस राजा ने विष्णु की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया। तब विष्णु ने एक फल देकर उसे भक्षण कराने को कहा।
      उस फल से नव मास के पश्चात् एक कन्या उत्पन्न हुई। जब यह कन्या बड़ी हुई तो उसका सौन्दर्य देखकर बड़े बड़े राजा मोहित हो गये और उन्होंने पद्माक्ष राजा पर चढ़ाई कर दी, पद्माक्ष मारा गया।
      पद्माक्षी एक समय अग्निकुण्ड से बाहर खड़ी थी, रावण उसे देखकर मोहित हो गया और उसे ग्रहण करने को आगे बढ़ा, परन्तु पद्माक्षी अग्निकुण्ड में लुप्त हो गयी।
      तदनन्तर रावण ने कुण्ड में शोधकर पञ्चरत्न प्राप्त किये और उन्हें एक सन्दूक में बन्दकर अपने घर लाकर मन्दोदरी को दिया और कहा–'यह रत्न मैं तुम्हारे लिये लाया हूँ।'
      मन्दोदरी ने जब सन्दूक खोलकर देखा तो भीतर एक दिव्य कन्या दिखायी पड़ी। उसे देखकर मन्दोदरी ने रावण से कहा–'यह कन्या तुम्हारे कुलका नाश करेगी। सन्दूक में से भी ऐसी ही आवाज़ आयी।'
      तब रावण उस कन्या को मारने को तैयार हुआ किन्तु मन्दोदरी के समझाने पर वह कन्या को सन्दूक में बन्द करके बड़ी दूर उत्तर में जनकपुर के पास नौकर द्वारा एक खेत में गड़वा दिया।
      पद्माक्ष राजा ने मृत्यु के अनन्तर इसी जनकपुर में एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया था, उसी के खेत में वह सन्दूक गाड़ी गयी थी, वह ब्राह्मण हल से जब खेत को जोतने लगा तब वह सन्दूक प्राप्त हुई।
      उस सन्दूक को द्रव्य होने की आशंका से उसने राजा जनक को जाकर दिया, राजा ने उसे खोला तो भीतर कन्या देखी। तब उसने ब्राह्मण को द्रव्य से सन्तुष्ट करके विदा किया और कन्या को अपनी पुत्री करके अपने घर में रखा, क्योंकि उनको सन्तति नहीं थी। कन्या का नाम सीता रखा गया और जनक की पुत्री होने से वह जानकी भी कही जाने लगी।
      राजा जनक के यहाँ एक समय परशुरामजी आये और अपना शिव धनुष बाहर रखकर महल के भीतर भोजन को गये, तब सीताजी इस प्रचण्ड धनुष को उठाकर उसे अश्व बना उसके ऊपर बैठकर खेलने लगी।
      भोजन के बाद परशुरामजी ने देखा कि सीताजी धनुष का घोड़ा बनाकर खेल रही हैं, उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने राजा जनक से कहा–'यह धनुष जो चढ़ावे, उसी के साथ तुम अपनी पुत्री का विवाह करना।'
      राम ! यह स्वयंवर हो रहा है, इस स्वयंवर में जो धनुष चढावेगा उसी को यह कन्या प्राप्त होगी।' ऐसा कहते-कहते वे जनकपुर आ पहुँचे।
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