ब्रज के भावनात्मक 12 ज्योतिर्लिंग, Emotional 12 Jyotirlingas of Braj

ब्रज के भावनात्मक 12 ज्योतिर्लिंग, Emotional 12 Jyotirlingas of Braj

ब्रज के भावनात्मक 12 ज्योतिर्लिंग

ब्रज के भावनात्मक 12 ज्योतिर्लिंग, Emotional 12 Jyotirlingas of Braj

1. ब्रजेश्वर महादेव- (बरसाना)👉

श्री राधा रानी के पिता बृषभानुजी भानोखर सरोवर मे स्नान करके नित्य ब्रजेश्वर महादेव की पूजा करते थे।

2. नंदीश्वर महादेव- (नंदगांव)👉

यहाँ पर महादेवजी पर्वत रूप मे विराजित है जिनके ऊपर नंदभवन बना हुआ है।नंदभवन में कृष्ण बलराम मंदिर के प्रांगण में भगवान शिव के देवता हैं जिन्हें नंदीश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। शिव-लिंग के रूप में इस देवता को राजा वज्रनाभ द्वारा स्थापित किया गया था, और इस देवता को फिर से खोजा गया था और इसे नंदभवन के प्रांगण में स्थापित किया गया था। यह परंपरा है कि कृष्ण बलराम के दशम के अवशेषों को सबसे पहले नंदीश्वर महादेव के देवता को अर्पित किया जाता है।

3. आसेश्वर महादेव-(नन्दगाँव)👉

यहाँ पर महादेवजी नंदलाला के (जन्म उत्सव के) दर्शन की आस लगाकर बैठे है। आसेश्वर नाम से ही झलकता है कि यह स्थान आशा पूर्ति से संबंधित है। पर यह आशा है किसकी?सबकी आशाओं की पूर्ति करने वाले शिव यहाँ एक आशा लेकर आये। आशा पूरी होने तक यहां तप किया और जब आशा पूरी हुई तो शिव आसेश्वर कहलाये। आज भी जो यहां कोई आशा लेकर जाता है तो उसकी आशा जरूर पूरी होती है।

4. कामेश्वर महादेव- काम्य वन (कामा)👉

यहाँ पर महादेवजी ने पार्वतीजी की राधा तत्व की महिमा जानने की कामना पूर्ण की।

कामेश्वर नाम क्यों पड़ा? उनके कई नाम हैं – नीलकंठ, चंद्रमौली, गंगाधर, शम्भो, शंकर ठे कामेश्वर होने का एक विशेष कारण है – क्योंकि यहां पार्वती जी ने भगवान शंकर से दुर्लभ इच्छाएं प्राप्त कीं, वे आज तक अपार हैं, कामवन में ही पूरी होने से नाम कामेश्वर पड़ा। वह दुर्लभ इच्छा थी- कृष्णप्राप्ति। लक्ष्मी जी ने कहा है स वै पतिः स्यादकुतोभयः स्वयं समन्त पाति भयातुरं जनम्। स एक एवतरथा मिथोभयं नैवात्मलाभादधि मन्यते परम् ॥ (भागवतम् 5/18/20) “जो कर्म, काल के पहले है वह पति नहीं है क्योंकि वह दूसरे की रक्षा नहीं कर सकता है।

5. रामेश्वर महादेव- काम्य वन (कामा)👉श्रीकृष्ण ने यहाँ पर श्री राम के आवेश में गोपियों के कहने से बंदरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया था। अभी भी इस सरोवर में सेतु बन्ध के भग्नावशेष दर्शनीय हैं। कुण्ड के उत्तर में रामेश्वर महादेव जी दर्शनीय हैं। जो श्री राम वेशी श्रीकृष्ण के द्वारा प्रतिष्ठित हुए थे। कुण्ड के दक्षिण में उस पार एक टीले के रूप में लंकापुरी भी दर्शनीय है।

कथा 👉 श्री कृष्ण लीला के समय परम कौतुकी श्री कृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर विनोदिनी श्री राधिका के साथ हास्य–परिहास कर रहे थे। उस समय इनकी रूप माधुरी से आकृष्ट होकर आस पास के सारे बंदर पेड़ों से नीचे उतरकर उनके चरणों में प्रणाम कर किलकारियाँ मार कर नाचने–कूदने लगे। बहुत से बंदर कुण्ड के दक्षिण तट के वृक्षों से लम्बी छलांग मारकर उनके चरणों के समीप पहुँचे। भगवान श्री कृष्ण उन बंदरों की वीरता की प्रशंसा करने लगे। गोपियाँ भी इस आश्चर्यजनक लीला को देखकर मुग्ध हो गई। वे भी भगवान श्री रामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं का वर्णन करते हुए कहने लगीं कि श्री रामचन्द्र जी ने भी बंदरों की सहायता ली थी। उस समय ललिता जी ने कहा– ‘हमने सुना है कि महापराक्रमी हनुमान जी ने त्रेता युग में एक छलांग में समुद्र को पार कर लिया था। परन्तु आज तो हम साक्षात रूप में बंदरों को इस सरोवर को एक छलांग में पार करते हुए देख रही हैं।’

ऐसा सुनकर कृष्ण ने गर्व करते हुए कहा– जानती हो! मैं ही त्रेता युग में श्री राम था मैंने ही राम रूप में सारी लीलाएँ की थी। ललिता श्री रामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं की प्रशंसा करती हुई बोलीं– तुम झूठे हो। तुम कदापि राम नहीं थे। तुम्हारे लिए कदापि वैसी वीरता सम्भव नहीं। श्री कृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा– तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है, किन्तु मैंने ही राम रूप धारण कर जनकपुरी में शिव धनुष को तोड़कर सीता से विवाह किया था। पिता के आदेश से धनुष बाण धारण कर सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट और दण्डकारण्य में भ्रमण किया तथा वहाँ अत्याचारी दैत्यों का विनाश किया। फिर सीता के वियोग में वन–वन भटका। पुन: बन्दरों की सहायता से रावण सहित लंकापुरी का ध्वंसकर अयोध्या में लौटा। मैं इस समय गोपालन के द्वारा वंशी धारण कर गोचारण करते हुए वन–वन में भ्रमण करता हुआ प्रियतमा श्री राधिका के साथ तुम गोपियों से विनोद कर रहा हूँ। पहले मेरे राम रूप में धनुष–बाणों से त्रिलोकी काँप उठती थी। किन्तु, अब मेरे मधुर वेणुनाद से स्थावर–जग्ङम सभी प्राणी उन्मत्त हो रहे हैं।

ललिता जी ने भी मुस्कराते हुए कहा–हम केवल कोरी बातों से ही विश्वास नहीं कर सकतीं। यदि श्री राम जैसा कुछ पराक्रम दिखा सको तो हम विश्वास कर सकती हैं। श्री रामचन्द्र जी सौ योजन समुद्र को भालू–कपियों के द्वारा बंधवा कर सारी सेना के साथ उस पार गये थे। आप इन बंदरों के द्वारा इस छोटे से सरोवर पर पुल बँधवा दें तो हम विश्वास कर सकती हैं। ललिता की बात सुनकर श्री कृष्ण ने वेणू–ध्वनि के द्वारा क्षण-मात्र में सभी बंदरों को एकत्र कर लिया तथा उन्हें प्रस्तर शिलाओं के द्वारा उस सरोवर के ऊपर सेतु बाँधने के लिए आदेश दिया। देखते ही देखते श्री कृष्ण के आदेश से हज़ारों बंदर बड़ी उत्सुकता के साथ दूर -दूर स्थानों से पत्थरों को लाकर सेतु निर्माण में लग गये। श्री कृष्ण ने अपने हाथों से उन बंदरों के द्वारा लाये हुए उन पत्थरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया। सेतु के प्रारम्भ में सरोवर की उत्तर दिशा में श्री कृष्ण ने अपने रामेश्वर महादेव की स्थापना भी की। आज भी ये सभी लीलास्थान दर्शनीय हैं। इस कुण्ड का नामान्तर लंका कुण्ड भी है।

6. केदारनाथ महादेव- (बिलोंद)👉

कामा से 10 किलोमीटर आगे, सफेद शिलाओं के पर्वत पर बना प्राकृतिक मन्दिर।

7. पशुपति नाथ- (पसोपा गांव)👉

यह कामा से 10 किलोमीटर दक्षिण मे है। ब्रजवासियों को लाला ने रामेश्वर, केदारनाथ व पशुपति नाथ के दर्शन यही कराये थे तब से ये यही विराजमान है।

8. चक्रेश्वर महादेव- (गोवर्धन)👉 चकलेश्वर महादेव का मंदिर गोवर्धन के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में गिना जाता है। इस प्राचीन मंदिर की कला अद्भुत है। मानसी गंगा के किनारे स्थित इस मन्दिर में प्रथम गणेश पूजन तत्पश्चात् शिवलिंग की पूजा की जाती है। तीनों नेत्रों से लाला का दर्शन करके महादेवजी की प्यास नहीं मिटी तो ठाकुरजी ने चार मुख प्रदान किये। महादेवजी यहाँ पर पंचमुखी है अत: पांच शिवलिंग है।

9. भूतेश्वर महादेव- (मथुरा)👉 भूतेश्वर महादेव मथुरा कृष्ण जन्मभूमि के दक्षिण में भूतेश्वर महादेव का मन्दिर है । इसमें ऐतिहासिक शिवलिंग एवं पाताल देवी के विग्रह हैं । भूतेश्वर महादेव का शिवलिंग नाग शासकों द्वारा स्थापित किया गया ।श्री भूतेश्वर जी मथुरा के रक्षक सुप्रसिद्ध चार महादेवों में पश्चिम दिशा के क्षेत्रपाल माने जाते हैं । संसार में व्यक्ति के मर जाने पर उसके कर्म का लेखाजोखा यमराज करते हैं, पर कहा जाता है की ब्रज में जो व्यक्ति मर जाता है उसका लेखाजोखा भूतेश्वर महादेव करते है।

10. रंगेश्वर महादेव- (मथुरा)👉

श्रीकृष्ण ने मथुरा के रक्षार्थ इनको स्थापित किया था।
उत्तर मे- गोकर्ण महादेव
पूर्व मे- पीप्लेश्वर महादेव
दक्षिण मे- रंगेश्वर महादेव
पश्चिम मे- भूतेश्वर महादेव।

कथा 👉 मथुरा के दक्षिण में श्री रंगेश्वर महादेव जी क्षेत्रपाल के रूप में अवस्थित हैं। भेज–कुलांगार महाराज कंस ने श्री कृष्ण और बलदेव को मारने का षड़यन्त्र कर इस तीर्थ स्थान पर एक रंगशाला का निर्माण करवाया। अक्रूर के द्वारा छलकर श्री नन्द गोकुल से श्री कृष्ण–बलदेव को लाया गया। श्रीकृष्ण और बलदेव नगर भ्रमण के बहाने ग्वालबालों के साथ लोगों से पूछते–पूछते इस रंगशाला में प्रविष्ट हुये। रंगशाला बहुत ही सुन्दर सजायी गई थी। सुन्दर-सुन्दर तोरण-द्वार पुष्पों से सुसज्जित थे। सामने शंकर का विशाल धनुष रखा गया था। मुख्य प्रवेश द्वार पर मतवाला कुबलयापीड हाथी झूमते हुए, बस इंगित पाने की प्रतीक्षा कर रहा था, जो दोनों भाईयों को मारने के लिए भली भाँति सिखाया गया था ।

धनुर्याग
रंगेश्वर महादेव की छटा भी निराली थी। उन्हें विभिन्न प्रकार से सुसज्जित किया गया था। रंगशाला के अखाड़े में चाणूर, मुष्टिक, शल, तोषल आदि बड़े-बड़े भयंकर पहलवान दंगल के लिए प्रस्तुत थे। महाराज कंस अपने बडे़-बड़े नागरिकों तथा मित्रों के साथ उच्च मञ्च पर विराजमान था।

रंगशाला में प्रवेश करते ही श्रीकृष्ण ने अनायास ही धनुष को अपने बायें हाथ से उठा लिया। पलक झपकते ही सबके सामने उसकी डोरी चढ़ा दी तथा डोरी को ऐसे खींचा कि वह धनुष भयंकर शब्द करते हुए टूट गया। धनुष की रक्षा करने वाले सारे सैनिकों को दोनों भाईयों ने ही मार गिराया। कुबलयापीड का वध कर श्रीकृष्ण ने उसके दोनों दाँतों को उखाड़ लिया और उससे महावत एवं अनेक दुष्टों का संहार किया। कुछ सैनिक भाग खड़े हुए और महाराज कंस को सारी सूचनाएँ दीं, तो कंस ने क्रोध से दाँत पीसते हुए चाणूर मुष्टिक को शीघ्र ही दोनों बालकों का वध करने के लिए इंगित किया। इतने में श्रीकृष्ण एवं बलदेव अपने अंगों पर ख़ून के कुछ छींटे धारण किये हुए हाथी के विशाल दातों को अपने कंधे पर धारण कर सिंहशावक की भाँति मुसकुराते हुए अखाड़े के समीप पहुँचे। चाणूर और मुष्टिक ने उन दोनों भाईयों को मल्लयुद्ध के लिए ललकारा। नीति विचारक श्रीकृष्ण ने अपने समान आयु वाले मल्लों से लड़ने की बात कही। किन्तु चाणूर ने श्रीकृष्ण को और मुष्टिक ने बलराम जी को बड़े दर्प से, महाराज कंस का मनोरंजन करने के लिए ललकारा। श्रीकृष्ण–बलराम तो ऐसा चाहते ही थे। इस प्रकार मल्लयुद्ध आरम्भ हो गया।

वहाँ पर बैठी हुई पुर–स्त्रियाँ उस अनीतिपूर्ण मल्ल्युद्ध को देखकर वहाँ से उठकर चलने को उद्यत हो गई। श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी का दर्शनकर कहने लगीं– अहो! सच पूछो तो ब्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है। वहाँ परम पुरुषोत्तम मनुष्य के वेश में छिपकर रहते हैं। देवादिदेव महादेव शंकर और लक्ष्मी जी जिनके चरणकमलों की पूजा करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ रंग–बिरंगे पूष्पों की माला धारणकर गऊओं के पीछे–पीछे सखाओं और बलरामजी के साथ बाँसुरी–बजाते और नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए आनन्द से विचरण करते हैं। श्रीकृष्ण की इस रूपमधुरिमा का आस्वादन केवल ब्रजवासियों एवं विशेषकर गोपियों के लिए ही सुलभ है। वहाँ के मयूर, शुक, सारी, गौएँ, बछड़े तथा नदियाँ सभी धन्य हैं। वे स्वच्छन्द रूप से श्रीकृष्ण की विविध प्रकार की माधुरियों का पान करके निहाल हो जाते हैं। अभी वे ऐसी चर्चा कर ही रही थीं कि श्रीकृष्ण ने चाणूर और बलरामजी ने मुष्टिक को पछाड़कर उनका वध कर दिया। तदनन्तर कूट, शल, तोषल आदि भी मारे गये। इतने में कंस ने क्रोधित होकर श्रीकृष्ण–बलदेव और नन्द–वसुदेव सबको बंदी बनाने के लिए आदेश दिया। किन्तु, सबके देखते ही देखते बड़े वेग से उछलकर श्रीकृष्ण उसके मञ्च पर पहुँच गये और उसकी चोटी पकड़कर नीचे गिरा दिया तथा उसकी छाती के ऊपर कूद गये, जिससे उसके प्राण पखेरू उड़ गये। इस प्रकार सहज ही कंस मारा गया। श्रीकृष्ण ने रंगशाला में अनुचरों के साथ कंस का उद्धार किया। कंस के पूजित शंकर जी इस रंग को देखकर कृत-कृत्य हो गये। इसलिए उनका नाम श्रीरंगेश्वर हुआ। यह स्थान आज भी कृष्ण की इस रंगमयी लीला की पताका फहरा रहा है। श्रीमद्भागवत के अनुसार तथा श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद के विचार से कंस का वध शिवरात्रि के दिन हुआ था। क्योंकि कंस ने अक्रूर को एकादशी की रात अपने घर बुलाया तथा उससे मन्त्रणा की थी।

द्वादशी को अक्रूर का नन्द भवन में पहुँचना हुआ, त्रयोदशी को नन्दगाँव से अक्रूर के रथ में श्रीकृष्ण बलराम मथुरा में आये, शाम को मथुरा नगर भ्रमण तथा धनुष यज्ञ हुआ था। दूसरे दिन अर्थात शिव चतुर्दशी के दिन कुवलयापीड़, चाणुरमुष्टिक एवं कंस का वध हुआ था।

प्रतिवर्ष यहाँ कार्तिक माह में देवोत्थान एकादशी से एक दिन पूर्व शुक्ला दशमी के दिन चौबे समाज की ओर से कंस-वध मेले का आयोजन किया जाता है। उस दिन कंस की 25–30 फुट ऊँची मूर्ति का श्रीकृष्ण के द्वारा वध प्रदर्शित होता है।

11. चिंताहरण महादेव👉

कथा 👉 मथुरा से 15 किलोमीटर दाऊजी के रास्ते में यहाँ लीला आसेश्वर महादेवजी की तरह है। मान्यता है कि भगवान कृष्ण ने सात वर्ष की आयु में मिट्टी खाई थी तो मां यशोदा घबरा गईं और कृष्ण से मिट्टी को मुंह से निकालने को कहा। जब भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मुंह खोला तो मां यशोदा को पूरे ब्रह्मांड के दर्शन हुए थे। इसके बाद माता यशोदा घबरा गईं और भगवान शिव को पुकारने लगीं। उनकी पुकार सुन भगवान शिव यहां प्रकट हो गए। उसके बाद यशोदा ने यमुना के जल से भगवान शिव का अभिषेक किया। माता यशोदा ने भगवान शिव से यहां विराजमान होकर सभी भक्तों की चिंताएं हरने का वचन मांगा। भगवान शिव ने माता यशोदा को ऐसा वचन दिया। इस बात का उल्लेख श्रीमद्भागवत पुराण के दसवें स्कन्द में भी है।

एक मान्यता यह भी है कि जब श्रीकृष्ण बाल रूप में थे, तब सभी देवता उनके बाल स्वरूप के दर्शन करने ब्रज में आए। भगवान शिव भी दर्शन करने आए, लेकिन माता यशोदा ने भगवान शिव के गले में सांप को देखकर उन्हें कृष्ण के दर्शन नहीं करने दिए। शिवजी को चिंता हुई। उन्होंने भगवान का ध्यान किया तो भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें इसी स्थान पर दर्शन देकर उनकी चिंता हर ली। बस तभी से भगवान भोलेनाथ यहीं विराजमान हो गए। इसका उल्लेख गर्ग संहिता और शिव महापुराण में भी मिलता है।

12. गोपेश्वर महादेव- (वृंदावन)👉

कथा 👉 एक बार शरद पूर्णिमा की शरत-उज्ज्वल चाँदनी में वंशीवट यमुना के किनारे श्याम सुंदर साक्षात मन्मथनाथ की वंशी बज उठी। श्रीकृष्ण ने छ: मास की एक रात्रि करके मन्मथ का मानमर्दन करने के लिए महारास किया था। मनमोहन की मीठी मुरली ने कैलाश पर विराजमान भगवान श्री शंकर को मोह लिया, समाधि भंग हो गयी। बाबा वृंदावन की ओर बावरे होकर चल पड़े। पार्वती जी भी मनाकर हार गयीं, किंतु त्रिपुरारि माने नहीं। भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त श्री आसुरि मुनि, पार्वती जी, नन्दी, श्रीगणेश, श्रीकार्तिकेय के साथ भगवान शंकर वृंदावन के वंशीवट पर आ गये। वंशीवट जहाँ महारास हो रहा था, वहाँ गोलोकवासिनी गोपियाँ द्वार पर खड़ी हुई थीं। पार्वती जी तो महारास में अंदर प्रवेश कर गयीं, किंतु द्वारपालिकाओं ने श्रीमहादेवजी और श्रीआसुरि मुनि को अंदर जाने से रोक दिया, बोलीं, “श्रेष्ठ जनों” श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष इस एकांत महारास में प्रवेश नहीं कर सकता।
श्री शिवजी बोले, “देवियों! हमें भी श्रीराधा-कृष्ण के दर्शनों की लालसा है, अत: आप ही लोग कोई उपाय बतलाइये, जिससे कि हम महाराज के दर्शन पा सकें?” ललिता नामक सखी बोली, यदि आप महारास देखना चाहते हैं तो गोपी बन जाइए। मानसरोवर में स्नान कर गोपी का रूप धारण करके महारास में प्रवेश हुआ जा सकता है। फिर क्या था, भगवान शिव अर्धनारीश्वर से पूरे नारी-रूप बन गये। श्रीयमुना जी ने षोडश श्रृंगार कर दिया, तो बाबा भोलेनाथ गोपी रूप हो गये। प्रसन्न मन से वे गोपी-वेष में महारास में प्रवेश कर गये।
श्री शिवजी मोहिनी-वेष में मोहन की रासस्थली में गोपियों के मण्डल में मिलकर अतृप्त नेत्रों से विश्वमोहन की रूप-माधुरी का पान करने लगे। नटवर-वेषधारी, श्रीरासविहारी, रासेश्वरी, रसमयी श्रीराधाजी एवं गोपियों को नृत्य एवं रास करते हुए देख नटराज भोलेनाथ भी स्वयं ता-ता थैया कर नाच उठे। मोहन ने ऐसी मोहिनी वंशी बजायी कि सुधि-बुधि भूल गये भोलेनाथ। बनवारी से क्या कुछ छिपा है। मुस्कुरा उठे, पहचान लिया भोलेनाथ को। उन्होंने रासेश्वरी श्रीराधा व गोपियों को छोड़कर ब्रज-वनिताओं और लताओं के बीच में गोपी रूप धारी गौरीनाथ का हाथ पकड़ लिया और मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए बड़े ही आदर-सत्कार से बोले, “आइये स्वागत है, महाराज गोपेश्वर।
श्रीराधा आदि श्रीगोपीश्वर महादेव के मोहिनी गोपी के रूप को देखकर आश्चर्य में पड़ गयीं। तब श्रीकृष्ण ने कहा, “राधे, यह कोई गोपी नहीं है, ये तो साक्षात् भगवान शंकर हैं। हमारे महारास के दर्शन के लिए इन्होंने गोपी का रूप धारण किया है। तब श्रीराधा-कृष्ण ने हँसते हुए शिव जी से पूछा, “भगवन! आपने यह गोपी वेष क्यों बनाया? भगवान शंकर बोले, “प्रभो! आपकी यह दिव्य रसमयी प्रेमलीला-महारास देखने के लिए गोपी-रूप धारण किया है। इस पर प्रसन्न होकर श्रीराधाजी ने श्रीमहादेव जी से वर माँगने को कहा तो श्रीशिव जी ने यह वर माँगा “हम चाहते हैं कि यहाँ आप दोनों के चरण-कमलों में सदा ही हमारा वास हो। आप दोनों के चरण-कमलों के बिना हम कहीं अन्यत्र वास करना नहीं चाहते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने `तथास्तु’ कहकर कालिन्दी के निकट निकुंज के पास, वंशीवट के सम्मुख भगवान महादेवजी को `श्रीगोपेश्वर महादेव’ के नाम से स्थापित कर विराजमान कर दिया। श्रीराधा-कृष्ण और गोपी-गोपियों ने उनकी पूजा की और कहा कि ब्रज-वृंदावन की यात्रा तभी पूर्ण होगी, जब व्यक्ति आपके दर्शन कर लेगा। आपके दर्शन किये बिना यात्रा अधूरी रहेगी। भगवान शंकर वृंदावन में आज भी `गोपेश्वर महादेव’ के रूप में विराजमान हैं और भक्तों को अपने दिव्य गोपी-वेष में दर्शन दे रहे हैं। गर्भगृह के बाहर पार्वतीजी, श्रीगणेश, श्रीनन्दी विराजमान हैं। आज भी संध्या के समय भगवान का गोपीवेश में दिव्य श्रृंगार होता है।

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