ज्योतिष ज्ञान
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भावाद्याय:
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लग्न भाव के अशुभ योग
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देहाधीशः सपापो व्ययरिपुमृतिगश्चेत्तदा देहसौख्यं,
न स्याज्जन्तोर्निजक्क्षे व्ययरिपुमृतिपस्तत्फलस्यैव कर्ता।
मूतौं चेत् क्रूरखेटस्तदनु तनुपतिः स्वीयवीर्येण हीनो,
नानातंकाकुलः स्याद्व्रजति हि मनुजो व्याधिमाधिप्रकोपम्॥1॥
इस श्लोक में तीन योग बताए गए हैं-
यदि लग्नेश पापग्रह से युक्त होकर 6, 8, 12 भावों में कहीं हो तो मनुष्य को शरीर सुख नहीं होता है ।
यदि 6, 8, 12 भावों में षष्ठेश, द्वादशेश व अष्टमेश में से किसी एक, दो या तीनों से युक्त होकर लग्नेश स्थित हो तो मनुष्य को शरीर सुख नहीं मिलता है।
यदि लग्न में क्रूर ग्रह हो, साथ में लग्नेश बलहीन हो तो मनुष्य को अनेक मानसिक, शारीरिक कष्ट एवं रोगादि होते हैं।
(i) देहाधिपः सपापः षष्ठाष्टम व्ययेषु तिष्ठति देहसौख्यं न जन्तोः।
(ii) सषष्ठाष्टमपस्तत्र स्थितश्चेत्तदेव फलम् ।
(iii) लग्ने पापे जातस्तदधिपो
बलहीनस्तदाधिव्याधिमान् । (शुकसूत्र)
इन तीन सूत्रों के योगों को यथावत् उक्त श्लोक में निबद्ध किया है।
यहाँ हम यह बात स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि 6, 8, 12 भावों के स्वामी इन्हीं भावों में कहीं स्थित हों तो सदैव शुभ फल देते हैं। विपरीत राजयोग भी इसी प्रकार बनता है। अर्थात् 6, 8, 12 में इनके स्वामी परस्पर स्थान परिवर्तन से स्थित हों तो विपरीत राजयोग होता है। यह एक अनुभूत राजयोग है।
उत्तरकालामृत के ग्रहभावफल खण्ड श्लोक 22 में इसका वर्णन है ।
लग्न के शुभ योग
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अङ्गाधीशः स्वगेहे बुधगुरुकविभिः संयुतः केन्द्रगो वा, स्वीये तुङ्गे स्वमित्रे यदि शुभभवने वीक्षितः सत्त्वरूपः ।
स्यान्नूनं पुण्यशीलः सकलजनमतः सर्वसंपन्निधानं,
ज्ञानी मन्त्री च भूपः सुरुचिरनयनो मानवो मानवानाम्।॥2॥
यदि लग्नेश लग्न में हो या वह बुध, गुरु, शुक्र से युक्त होकर केन्द्र में हो, या लग्नेश अपने उच्च में हो या मित्र गृह या शुभ गृह
में शुभ ग्रहों से दृष्ट हो।
इन योगों में से कोई एक भी योग हो तो मनुष्य को राजयोग होता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य सुन्दर शरीर वाला, पुण्यशाली, सकल जनों से समर्थित (लोकप्रिय) सब सम्पत्तियों का निवास स्थान, ज्ञानी, मन्त्री, राजा व सुन्दर नेत्रों वाला होता है ।
इस श्लोक में तीन योग बताए गए हैं। लग्नेश लग्न में हो तो प्रथम श्रेणी
योग व अपनी दूसरी राशि में हो तो द्वितीय श्रेणी योग माना जाएगा। लग्न को यदि लग्नेश, गुरु, बुध की युति या दृष्टि मिले तो वह बली होता है। अतः लग्नेश लग्न में बैठे और बुध, गुरु, शुक्र, से युत या दृष्ट भी हो तो और श्रेष्ठ फल होगा।
यदि लग्नेश केन्द्र में बुध, गुरु, शुक्र, से युत होकर बैठे तो भी उत्तम योग होता है।
अथवा लग्नेश अपने उच्च, मूल त्रिकोण, स्वगृह, मित्रराशि में स्थित हो और उसे शुभग्रह (बुध, गुरु, शुक्र) देखें तो भी उक्त योग बनता है। ये श्रेष्ठ व सर्वसम्मत योग हैं। आप अपने अन्भव में पाएँगे कि ऐसे योग होने पर मनुष्य सुखी, धनी, यशस्वी होता है। इस श्लोक से सम्बद्ध सूत्र उपलब्ध नहीं
है। इस योग में यह ध्यान रखना चाहिए कि अन्य ग्रहों की दृष्टि या योग इन योगकारक ग्रहों पर नहीं होना चाहिए । वराहमिहिर ने कहा है –
‘होरास्वामिगुरुज्ञवीक्षितयुता नान्यैश्च’ वीर्योत्कटा ।”
इस प्रकार विचारपूर्वक तारतम्य से फल कहना चाहिए। पण्डित जवाहरलाल
नेहरू की कुण्डली में कर्क में चन्द्रमा लग्नस्थ है। अतः श्लोक में प्रोक्त प्रथम
योग की महत्ता समझी जा सकती है। लेकिन इस श्लोक के योगों का श्रेष्ठ
उदाहरण स्व. भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी की कुण्डली है-लग्न में लग्नेश सूर्य स्वक्षेत्री या मूलत्रिकोणी होकर बुध, गुरु
व शुक्र से युक्त है। चन्द्र लग्न भी लग्नेश व बुध, गुरु, शुक्र से युक्त है। अतः श्लोकोक्त प्रकार से इनकी सुन्दरता, आकर्षक
व्यक्तित्व, सुन्दर आँखें, जनमतशालिता, सम्पत्तिशालिता व राजत्व स्पष्ट है।
लेकिन इस कुण्डली में इतना ऊँचा फल मिलने का कारण यह भी है कि सूर्य, चन्द्र व लग्न इन तीनों पर समान रूप से उच्च योग घटित हो रहा है।
इससे कम मात्रा का योग कम फलप्रद होगा, यह समझना चाहिए। एक अन्य शुक सूत्र उपलब्ध है, जिसका संस्पर्श श्लोक में नहीं किया गया है कि लग्नेश गुरु से युक्त हो तो मनुष्य अति राज-पूज्य होता है।
(i) देहपो गुरुणा युतश्चेदतिराजपूज्यो भवति । (शुकसूत्र)
लग्न के तीन अनिष्ट योग
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लग्ने क्रूरेऽथ याते खलखरगृहं लग्ननाथे रवीन्दू,
क्रूरान्तः स्थानसंस्थावथ दिनपनिशानाथयोर्घूनयायी।
भूमीपुत्रस्तु पृष्ठादुदयमधिगतश्चन्द्रजश्चेन्मनस्वी
स्यादन्धो दुष्टकर्मा परभवनरतः पूरुषः क्षीणकायः॥3॥
लग्न में क्रूरग्रह हो और लग्नेश (स्वराशि को छोड़कर) अन्य किसी क्र ग्रह की राशि में हो।
सूर्य व चन्द्रमा पाप ग्रहों के मध्य में हों।
सूर्य लग्न या चन्द्र लग्न से सप्तम में मंगल हो और बुध पृष्ठोदय राशि (मेष, वृष, कर्क, धनु, मकर) में हो तो मनुष्य स्वेच्छाचारी, मनमौजी, अन्धा, कुकृत्य या हीनकृत्य करने वाला, परोपजीवी व दुर्बल होता है ।
यदि लग्नेश स्वयं पाप ग्रह हो और वह लग्नेतर स्थान में स्वराशि को छोड़कर किसी पाप राशि में बैठा हो तभी प्रथम योग घटित होगा।
लग्न, लग्नेश, सूर्य व चन्द्र पर जितना पापप्रभाव होगा, उसी अनुपात से मनुष्य निर्धन व अकिंचन, असहाय, पीड़ित होता है, यह अनुभूत है।
सूर्य या चन्द्र से सप्तम में मंगल, मंगलीक योग बनाएगा जो उसके धनागम एवं शारीरिक स्वास्थ्य को हानि पहुँचाएगा।
इनसे द्विद्द्दादश स्थानों में पाप ग्रह दृष्टि की न्यूनता को देते हैं और सप्तम में मंगल बैठ कर उक्त द्विर्द्वाशस्थ ग्रहों से षष्ठ व अष्टम सम्बन्ध भी रखेगा जो दृष्टि, भाग्य व सामाजिक प्रतिष्ठा को कम करेगा।
शीर्षोदय राशि में प्रश्न हो तो कार्य सिद्ध होते हैं और पृष्ठोदय राशि में कार्य हानि होती है, यह ज्योतिष का सिद्धान्त है । बुध जो चेतना, बुद्धि, वाणी एवं कलात्मकता का ग्रह है, वह पृष्ठोदय राशि में होगा तो उक्त पदार्थों की कमी रहेगी।
सूर्य व चन्द्र से द्विद्द्ादश में पाप ग्रह होने पर एक साथ पाप दुरुधरा
व पाप उभयचरी योग बनेगा, जो निश्चय से शुभ फल नहीं देंगे।
नीचे दर्शायी कुण्डली में ये योग
देखे जा सकते हैं : इस कुण्डली में लग्नेश पापराशि में है, अतः प्रथम योग अंशतः है। चन्द्रमा से सप्तम में मंगल है और बुध पृष्ठोदय राशि में है, अतः तृतीय योग
पूर्ण रूप से घटित हो रहा है।
ऊपर फल बताया गया है कि ऐसा व्यक्ति पराये घर में रहने वाला, कमजोर आदि होता है। इस व्यक्ति का घर कभी नहीं बसा। विवाह के बाद पाँच महीनों में ही अलगाव हुआ । पृथक् पत्नी से पुत्र हुआ था जो 34 वर्ष बाद पिता से एक बार मिला और फिर अलगाव हो गया अतः यह
व्यक्ति कुटुम्ब सुख, मानसिक शान्ति व शरीर सुख से जीवन भर वंचित रहा।
इन्हें लंगड़ापन भी जीवन भर रहा। इन सज्जन के पुत्र की कुण्डली में भी लग्न
में पाप राशि में केतु और लग्नेश सूर्य पाप राशि (वृश्चिक) में था । अतः यह भी जीवन भर मामा के घर में रहा था। ऐसे योगों में व्यक्ति प्रायः पराश्रित, अस्थिर चित्त वाले, अशान्ति युक्त जीवन वाले और कुटुम्ब सुख से वंचित होते हैं।
नारायण सेवा ज्योतिष संस्थान